Thursday, June 12, 2014

योग परिचय

योग परिचय


योग शब्द वेदों, उपनिषदों, गीता एवं पुराणों आदि में अति पुरातन काल से व्यवहृत होता आया है। भारतीय दर्शन में योग एक अति महत्वपूर्ण शब्द है। आत्मदर्शन एवं समाधि से लेकर कर्मक्षेत्र तक योग का व्यापक व्यवहार हमारे शास्त्रों में हुआ है। योगदर्शन के उपदेष्टा महर्षि पतंजलि 'योग' शब्द का अर्थ चित्तवृत्ति का निरोध करते हैं। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति ये पंचविध वृत्तियाँ जब अभ्यास एवं वैराग्यादि साधनों से मन में लय को प्राप्त हो जाती हैं और मन दृष्टा (आत्मा) के स्वरूप में अवस्थित हो जाता है, तब योग होता है। 

महर्षि व्यास योग का अर्थ समाधि करते हैं। व्याकरणशास्त्र में 'युज्' धातु से भाव में घञ प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्पन्न होता है। महर्षि पाणिनि के धातुपाठ के दिवादिगण में (युज् समाधौ), रूधादिगण में (युजिर् योगे) तथा चुरादिगण में (युज् संयमने) अर्थ में 'युज्' धातु आती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संयमपूर्वक साधना करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ योग करके (जोड़कर) समाधि का आनंद लेना योग है। 

उपर्युक्त ऋषियों की मान्यताओं के अनुसार योग का तात्पर्य स्वचेतना और पराचेतना के मुख्य केन्द्र परमचैतन्य प्रभु के साथ संयुक्त हो जाना है। सम्यक् बोध से रागोपहती होने पर जब व्यक्ति वैराग्य के भाव से अभिभूत होता है, तब वह समस्त क्षणिक भावों, वृत्तियों से ऊपर आत्मसत्ता के संपर्क में आता है।  चित्त की पाँच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध। इनमें से प्रथम तीन अवस्थाओं में योग एवं समाधि नहीं होती। एकाग्र एवं निरुद्ध अवस्था में अविधादि पांच क्लेशों एवं कर्म के बंधन के शिथिल होने पर क्रमश: सम्प्रज्ञात (वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत, अस्मितानुगत) और असम्प्रज्ञात समाधी (भवप्रत्ययगत एवं उपायप्रत्ययगत) की प्राप्ति होती है। 

भारतीय वाङ्मय में गीता में योगेक्ष्वर श्रीकृष्ण योग को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करते हैं - अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-विफलता, जय-पराजय, इन समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए सम रहने को योग कहते हैं। असंग भाव से द्रष्टा बनकर, अंतर की दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही योग है। 

जैनाचार्यों के अनुसार जिन साधनों से आत्मा की सिद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह योग है। पुन: जैनदर्शन में मन, वाणी एवं शरीर की वृत्तियों को भी कर्मयोग कहा गया है। 

आधुनिक योग के योगी श्रीअरविन्द के अनुसार परमदेव के साथ एकत्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना तथा इसे प्राप्त करना ही सब योगों का स्वरुप है।

- स्वामी रामदेव जी 

स्रोत:
योग साधना एवं योग चिकित्सा रहस्य - स्वामी रामदेव जी 

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