Saturday, May 24, 2014

मिट्टी के बर्तनों का उपयोग कर भोजन को स्वादिष्ट एवं पौष्टिक बनाएं।

मिट्टी के बर्तनों का उपयोग कर भोजन को स्वादिष्ट एवं पौष्टिक बनाएं। 

मिट्टी के अंदर मौजूद १८ प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्व भोजन को स्वादिष्ट एवं पौष्टिक बनती है। 


हजारों वर्षों से हमारे यहाँ मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता आया है अभी कुछ वर्षों पूर्व तक गाँवों में वैवाहिक कार्यक्रमों में तो मिट्टी के बर्तन ही उपयोग में आते थे। घरों में दाल पकाने, दूध गर्म करने, दही जमाने, चावल बनाने और अचार रखने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता रहा है। मिट्टी के बर्तन में जो भोजन पकता है उसमें सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी नहीं होती जबकि प्रेशर कुकर व अन्य बर्तनों में भोजन पकाने से सूक्ष्म पोषक तत्व कम हो जाते हैं जिससे हमारे भोजन की पौष्टिकता कम हो जाती है। भोजन को धीरे-धीरे ही पकना चाहिये तभी वह पौष्टिक और स्वादिष्ट पकेगा और उसके सभी सूक्ष्म पोषक तत्व सुरक्षित रहेंगे । 

महर्षि वागभट्ट जी के अनुसार भोजन को पकाते समय उसे सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श मिलना आवश्यक है जबकि प्रेशर कुकर में पकाते समय भोजन को ना तो सूर्य का प्रकाश और ना ही पवन का स्पर्श मिल पाता, जिससे उसके सारे पोषक तत्व क्षींण हो जाते हैं । और प्रेशर कुकर एल्यूमीनियम का बना होता है जो कि भोजन पकाने के लिये सबसे घटिया धातु है क्योंकि एल्यूमीनियम भारी धातु होती है और यह हमारे शरीर से अपशिष्ट पदार्थ के रूप में बाहर नहीं निकल पाती है । इसी कारण एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग करने से कर्इ प्रकार के गंभीर रोग होते हैं जैसे अस्थमा, वात रोग, टी.बी. मधुमेह (डायबिटीज), पक्षाघात (पेरेलिसिस), स्मरण शक्ति का कम होना आदि! वैसे भी भाप के दबाव से भोजन उबल जाता है पकता नहीं है। 

आयुर्वेद के अनुसार जो भोजन धीरे-धीरे पकता है वह भोजन सबसे अधिक पौष्टिक होता है । भोजन को शीघ्र पकाने के लिये अधिक तापमान का उपयोग करना सबसे हानिकारक है। हमारे शरीर को प्रतिदिन 18 प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्व चाहिए जो मिट्टी से ही आते है। जैसे- Calcium, Magnesium, Sulphur, Iron, Silicon, Cobalt, Gypsum आदि। मिट्टी के इन्ही गुणों और पवित्रता के कारण हमारे यहाँ पुरी के मंदिरों (उड़ीसा) के अलावा कर्इ मंदिरों में आज भी मिट्टी के बर्तनों में प्रसाद बनता है। अधिक जानकारी के लिए पुरी के मंदिर की रसोर्इ देखें।  

मैंने तो स्वयं अपने घर में प्रतिदिन मिट्टी की हांड़ी में सब्ज़ी, दूध आदि पकाने की शुरुवात कर दी है। 
और मेरा आपसे भी आग्रह है की एक बार आप भी अपने घर में मिट्टी की हांड़ी में सब्ज़ी पका कर देखिये आप खुद फर्क महसूस करेंगे। 

स्रोत:



Friday, May 23, 2014

प्राणायाम परिचय

・日本語下

प्राणायाम परिचय



सिद्ध योगियों व पतंज्जलि आदि ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित प्राणायाम एक पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे असाध्य रोगों से मुक्ति के साथ मन की शांति व समाधि की प्राप्ति भी होती है। आज योग के नाम पर कुछ तथाकथित योगी व्यक्ति समाज के लिए अष्टांग योग की अतिमहत्ता एवं उपयोगिता को भुलाकर मात्र आसनों का ही अधिक प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इससे समाज में योग के नाम पर भ्रम व्याप्त होता जा रहा है। इसके लिए महर्षि पतंज्जलि प्रतिपादित अष्टांग योग को प्रचारित करना बहुत आवश्यक है, अन्यथा योग जैसा गरिमामय अति उदात्त शब्द भी संकीर्ण-सा होकर रह जायेगा।

लाखों व्यक्तियों पर प्रयोगात्मक अनुभवों के आधार पर मेरा मानना है कि प्राणायाम का आरोग्य एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से विशेष महत्व है। रोगोपचार की दृष्टि से भी हड्डी के रोगों को छोड़कर शेष सभी व्याधियाँ आसनों से नहीं, अपितु प्राणायाम से ही दूर हो सकती हैं। हृदयरोग, अस्थमा, रन्नायुरोग, वातरोग, मधुमेह आदि जटिल रोगों की प्राणायाम के बिना निवृत्ति नहीं हो सकती तथा आसन भी तभी पूर्ण लाभदायक होते हैं, जब प्राणायामपूर्वक किये जाते हैं।

प्राणायाम बालक से लेकर वृद्ध पर्यन्त सभी सहजता से कर सकते है।


- स्वामी रामदेव जी 


स्रोत:
प्राणायाम रहस्य - स्वामी रामदेव जी 

नोट: इस पुस्तक को खरीदने के लिए दिव्य योग मंदिर से संपर्क करें। 


Saturday, May 10, 2014

त्रिदोष सिद्धांत - वात, पित्त व कफ

त्रिदोष सिद्धांत - वात, पित्त व कफ

वात, पित्त एवं कफ ये तीन दोष शरीर में जाने जाते है। ये दोष यदि विकृत हो जाएं तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं, और मृत्यू का कारन बन जाते हैं। यदि ये वात, पित्त, एवं कफ सामान्य रूप से संतुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुऐ शरीर का पोषण करते है यधपि ये वात, पित्त, कफ शरीर के सभी भागों में रहते हैं, लेकिन विशेष रूप से वात नाभि के नीचे वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में, कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है।



आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। युवा अवस्था में पित्त का असर होता है।  बाल्य अवस्था में कफ का असर होता है। इसी तरह दिन के प्रथम पहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव होता है दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात का प्रभाव होता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। 

जब व्यक्ति बाल्य अवस्था में होता है, उस समय कफ की प्रधानता होती है। बचपन में मुख्य भोजन दूध होता है। बालक को अधिक चलना-फिरना नहीं होता है। बाल्य अवस्था में किसी भी तरह की चिन्ता नहीं होती है। अत: शरीर में स्निग्ध, शीत जैसे गुणों से युक्त कफ अधिक बनता है। युवा अवस्था में शरीर में धातुओं का बनना अधिक होता है, साथ ही रक्त निर्माण अधिक होता है। रक्त का निर्माण करने में पित्त की सबसे बड़ी भूमिका होती है। युवा अवस्था में शारीरिक व्यायाम भी अधिक होता है। इसी कारण भूख भी अधिक लगती है। ऐसी स्थिति में पित्त की अधिकता रहती है। युवा अवस्था में पित्त का बढ़ना बहुत ज़रूरी होता है। यदि पित्त ना बढ़े तो शरीर में रक्त की कमी हो जाएगी और शरीर को पुष्ट करने वाली धातुओं का भी निर्माण नहीं होगा। पित्त के गुण है। - तीक्षण, उष्ण।

वृद्धा अवस्था में शरीर क्षय होने लगता है। सभी धातुयें शरीर में कम होती जाती है। शरीर में रूक्षता बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में शरीर में वायु (वात) का प्रभाव बढ़ जाता है। वायु का गुण रूक्ष एवं गति है।

समय विभाजन के अनुसार दिन के प्रथम पहर में शीत या ठंड की अधिकता होती है। इसके कारण शरीर में थोड़ा भारीपन होता है। इसी कारण कफ में वृद्धि होती है। दिन के दूसरे पहर में और मध्यकाल में सूर्य की किरणें काफी तेज हो जाती है। गर्मी बढ़ जाती है। इस समय पित्त अधिक हो जाता है। अत: दिन के दूसरे पहर एवं मध्यकाल में पित्त प्रबल होता है। दिन के तीसरे और सांयकाल सूर्य किरणों के मन्द हो जाने के कारण वायु का प्रभाव बढ़ता है। इसी तरह रात्रि के प्रथम पहर में कफ की वृद्धि होती है। रात्रि के दूसरे पहर में वात (वायु) की वृद्धि होती है। चूंकि रात्रि के तीसरे पहर या अन्तिम पहर में वातावरण में भी शीतल वायु बहती है, अत: शरीर के इसी वायु के संपर्क में आ जाने से शरीर में भी वायु बढ़ जाती है।

इसी तरह खाने-पीने के समय का वात, पित्त, कफ के साथ्ज्ञ मेल है। खाने को खाते समय कफ की मात्रा शरीर में अधिक होती है। खाने के बाद जब भोजन के पाचन की क्रिया शुरू होती है, उस समय पित्त की प्रधानता रहती है। भोजन में पाचन के बाद वायु की प्रधानता होती है। भोजन कफ के साथ ही मिलकर आमाशय में पहुँचता है। मुंह में बनने वाली लार क्षारीय होती है। आमाशय में जो स्त्राव होता है, वह अम्लीय है। अत: भोजन को खाते समय लार भोजन के साथ मिलकर आमाशय में पहुंचती है, जहाँ उसमे अम्ल मिलता है। अम्ल और क्षार के संयोग से भोजन मधुर (मृदु) होता है। भोजन के मधुर होने से ही आमाशय में कफ की वृद्धि होती है। भोजन जब आमाशय से आगे चलता है तो फिर पित्त की क्रिया शुरू होती है। इस पित्त के बढ़ने से अग्नि प्रदीप्त होती है, जो भोजन को जलाकर रस में बदल देती है। भोजन के रस में बदल जाने के बाद ही इसमें से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र आदि बनते है और इस स्तर पर वायु की अधिकता होती है। इस वायु के कारण ही मल-मूत्र का शरीर से निकलना होता है। इस तरह शरीर में प्रतिदिन प्राकृतिक रूप से वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती रहती है। यह प्राकृतिक वृद्धि ही शरीर की रक्षा करती है। इस प्राकृतिक तरीके से होने वाली वात, पित्त, कफ की वृद्धि शरीर में बाधा उत्पन नहीं करती है,बल्कि शरीर की क्रियाओं में सहायक रूप होती है। इसके विपरीत जब गलत आहार-विहार के कारण  वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती है,तब शरीर हो हानि होती है और बीमारियाँ होती जाती है।

यदि शरीर में वात आदि दोषों की प्रधानता होती है तो उसका जठराग्नि पर प्रभाव पड़ता है। यदि वायु विषमगति हो जाए तो, पाचन क्रिया कभी नियमित और कभी अनियमित हो जाती है। पित्त अपने तीक्षण गुणों के कारण अग्नि को तीव्र कर खाये हुऐ आहार को समय से पहले ही पचा देती है। कफ अपने मृदु गुण के कारण अग्नि को मृदु बनाकर उचित मात्रा में खाये हुऐ आहार का सम्यक पाचन नियमित समय में नहीं कर पता है। यदि वात, पित्त और कफ तीनों समान मात्रा में रहें तो उचित मात्रा में खाये हुऐ आहार का निश्चित समय से पाचन हो जाता है। 

वात की वृद्धि से मलाशय पर प्रभाव पड़ता है। मलद्वार में क्रूरता बढ़ती है। इससे मलत्याग देरी से होता है। पित्त की वृद्धि से मलाशय मृदु होता है। कफ की वृद्धि से यही मलाशय मध्ये होता है। यदि वात, पित्त, कफ समान है,तो मलाशय एवं मलद्वार मध्य होता है। 

 यदि कोई व्यक्ति वात प्रकृति का है या उसके पेट में वायु का प्रभाव बढ़ गया है तो उसका कोष्ठ क्रूर होगा। अर्थात उस व्यक्ति को मलत्याग में देरी से होगा। इसी को कोष्ठवृद्धता भी कहते है। इसको ठीक करने के लिए औषधि की ज़रूरत होती है। ऐसी औषधि जो वात को काम करे और पित्त को बढ़ाये। जैसे ही पित्त बढ़ता है,वैसे ही कोष्ठ मृदु हो जाता है। कोष्ठ मृदु हो जाये तो मलत्याग आसान हो जाता है। मलत्याग आसान करने के लिए दूध,त्रिफलाचूर्ण बहुत अच्छी औषधियाँ है। मलत्याग करना सबसे अधिक आसान तब होता है, जब  वात, पित्त, कफ समान हो या सम हो।

स्रोत:
स्वदेशी चिकित्सा - दिनचर्या-ऋतुचर्या के आधार पर (भाग - १)
संकलन एवं संपादन: राजीव दिक्षित

नोट: इस पुस्तक को खरीदने के लिए राजीव दिक्षित मेमोरियल स्वदेशी उत्थान संस्था से संपर्क करें। 

हल्दी 鬱金(ウコン)

हल्दी का परिचय एवं इतिहास

हल्दी भारतीय वनस्पति है। रसोई घर में प्रयोग होने वाले मसालों में हल्दी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। कोई भी मांगलिक कार्य बिना हल्दी के पूरा नहीं होता है। सौन्दर्य प्रसाधनों में भी इसका इस्तेमाल होता है। हल्दी की कई प्रजातियाँ पायी जाती है।

हिन्दी नाम : हल्दी
जापानी नाम : ウコン
वैज्ञानिक नाम : Curcuma longa L.

ウコンの紹介と歴史

「ウコンの力」皆様ご存知だと思います。

ウコンは、元々天竺(インド)から来たものです。主なオーシャディの一つであり、台所でいつでも見られるスパイス(オーシャディ)でもあります。あらゆる祝い事の式典(結婚、祈りなど、、、)に、ウコンは必須です。化粧品にもよく使われています。ウコンには複数の種類が有ります。

ヒンディー語名:ハルディ(हल्दी)
日本語名:鬱金(ウコン)
科学語名:Curcuma longa L.



हल्दी के औषधीय गुण

दंत चिकित्सा - हल्दी, नमक और थोड़ा सा सरसों के तैल को मिलाकर अंगुली से प्रतिदिन मसूड़ों की मालिश करना पायरिया, मुखदुर्गन्ध व दांतों के रोग में अत्यन्त लाभकारी है। 

दर्द निवारक - 1 चम्मच हल्दी पाउडर को प्रतिदिन 1 गिलास गर्म दूध के साथ पीने से शरीर की रोगप्रतिरोधक-क्षमता में वृद्धि होती है। सर्दी, जुकाम आदि नहीं होते। शरीर के दर्द, चोट व पीड़ा में भी लाभ होता है। 

गले के संक्रमण - 1/2 चम्मच हल्दी को थोड़ा भूनकर शहद से लेने से गला बैठना या खांसी में तुरन्त लाभ होता है

चोट - यदि कहीं कट या जल जाये तो हल्दी पाउडर को लगाने से रक्तस्राव बंद हो जाता है। 

मोच - शरीर में कहीं मोच आ जाये तो एक मोटी रोटी बनाकर उसमें सरसों का तैल व हल्दी डालकर गर्म रोटी को मोच वाले स्थान पर बाँधने ने सूजन व मोच में तुरन्त लाभ होता है। 

झाइयों या फुन्सियों - चेहरे की झाइयों या फुन्सियों में हल्दी व चन्दन और नीम की पत्तियों को पीसकर लगाने से फुन्सियाँ ठीक होकर चेहरे की सुन्दरता भी बढ़ाती है। 

鬱金(ウコン)の医学的な特性

歯の治療ウコン、塩とマスタードオイルを混ぜて指で毎日マッサージすることで膿漏(のうろう)、口臭と歯の他の問題が改善します。

免疫力の向上1スプーンのウコンを1グラスの牛乳に入れ、暖めて飲みます。このウコン牛乳を毎日飲むことで免疫力が向上し、風邪の予防と、咳止め効果が期待できます。また、筋肉痛、怪我などにも効果を発揮します。

喉の痛み1/2スプーンのウコンを少し焼いてから蜂蜜(ハチミツ)と一緒に飲みます。喉の痛みと咳に効果があります。

怪我(ケガ)怪我や火傷にウコンの粉をかければ止血効果があります。

捻挫(ネンザ)ロティにマスタードオイル、ウコンをつけて暖めてから、捻挫がある場所に当てて治癒を促します。

黒皮症ウコン、チャンダンとニームを混ぜて顔につけると黒皮症が治り、顔色が良くなります。