Saturday, May 10, 2014

त्रिदोष सिद्धांत - वात, पित्त व कफ

त्रिदोष सिद्धांत - वात, पित्त व कफ

वात, पित्त एवं कफ ये तीन दोष शरीर में जाने जाते है। ये दोष यदि विकृत हो जाएं तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं, और मृत्यू का कारन बन जाते हैं। यदि ये वात, पित्त, एवं कफ सामान्य रूप से संतुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुऐ शरीर का पोषण करते है यधपि ये वात, पित्त, कफ शरीर के सभी भागों में रहते हैं, लेकिन विशेष रूप से वात नाभि के नीचे वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में, कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है।



आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। युवा अवस्था में पित्त का असर होता है।  बाल्य अवस्था में कफ का असर होता है। इसी तरह दिन के प्रथम पहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव होता है दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात का प्रभाव होता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। 

जब व्यक्ति बाल्य अवस्था में होता है, उस समय कफ की प्रधानता होती है। बचपन में मुख्य भोजन दूध होता है। बालक को अधिक चलना-फिरना नहीं होता है। बाल्य अवस्था में किसी भी तरह की चिन्ता नहीं होती है। अत: शरीर में स्निग्ध, शीत जैसे गुणों से युक्त कफ अधिक बनता है। युवा अवस्था में शरीर में धातुओं का बनना अधिक होता है, साथ ही रक्त निर्माण अधिक होता है। रक्त का निर्माण करने में पित्त की सबसे बड़ी भूमिका होती है। युवा अवस्था में शारीरिक व्यायाम भी अधिक होता है। इसी कारण भूख भी अधिक लगती है। ऐसी स्थिति में पित्त की अधिकता रहती है। युवा अवस्था में पित्त का बढ़ना बहुत ज़रूरी होता है। यदि पित्त ना बढ़े तो शरीर में रक्त की कमी हो जाएगी और शरीर को पुष्ट करने वाली धातुओं का भी निर्माण नहीं होगा। पित्त के गुण है। - तीक्षण, उष्ण।

वृद्धा अवस्था में शरीर क्षय होने लगता है। सभी धातुयें शरीर में कम होती जाती है। शरीर में रूक्षता बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में शरीर में वायु (वात) का प्रभाव बढ़ जाता है। वायु का गुण रूक्ष एवं गति है।

समय विभाजन के अनुसार दिन के प्रथम पहर में शीत या ठंड की अधिकता होती है। इसके कारण शरीर में थोड़ा भारीपन होता है। इसी कारण कफ में वृद्धि होती है। दिन के दूसरे पहर में और मध्यकाल में सूर्य की किरणें काफी तेज हो जाती है। गर्मी बढ़ जाती है। इस समय पित्त अधिक हो जाता है। अत: दिन के दूसरे पहर एवं मध्यकाल में पित्त प्रबल होता है। दिन के तीसरे और सांयकाल सूर्य किरणों के मन्द हो जाने के कारण वायु का प्रभाव बढ़ता है। इसी तरह रात्रि के प्रथम पहर में कफ की वृद्धि होती है। रात्रि के दूसरे पहर में वात (वायु) की वृद्धि होती है। चूंकि रात्रि के तीसरे पहर या अन्तिम पहर में वातावरण में भी शीतल वायु बहती है, अत: शरीर के इसी वायु के संपर्क में आ जाने से शरीर में भी वायु बढ़ जाती है।

इसी तरह खाने-पीने के समय का वात, पित्त, कफ के साथ्ज्ञ मेल है। खाने को खाते समय कफ की मात्रा शरीर में अधिक होती है। खाने के बाद जब भोजन के पाचन की क्रिया शुरू होती है, उस समय पित्त की प्रधानता रहती है। भोजन में पाचन के बाद वायु की प्रधानता होती है। भोजन कफ के साथ ही मिलकर आमाशय में पहुँचता है। मुंह में बनने वाली लार क्षारीय होती है। आमाशय में जो स्त्राव होता है, वह अम्लीय है। अत: भोजन को खाते समय लार भोजन के साथ मिलकर आमाशय में पहुंचती है, जहाँ उसमे अम्ल मिलता है। अम्ल और क्षार के संयोग से भोजन मधुर (मृदु) होता है। भोजन के मधुर होने से ही आमाशय में कफ की वृद्धि होती है। भोजन जब आमाशय से आगे चलता है तो फिर पित्त की क्रिया शुरू होती है। इस पित्त के बढ़ने से अग्नि प्रदीप्त होती है, जो भोजन को जलाकर रस में बदल देती है। भोजन के रस में बदल जाने के बाद ही इसमें से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र आदि बनते है और इस स्तर पर वायु की अधिकता होती है। इस वायु के कारण ही मल-मूत्र का शरीर से निकलना होता है। इस तरह शरीर में प्रतिदिन प्राकृतिक रूप से वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती रहती है। यह प्राकृतिक वृद्धि ही शरीर की रक्षा करती है। इस प्राकृतिक तरीके से होने वाली वात, पित्त, कफ की वृद्धि शरीर में बाधा उत्पन नहीं करती है,बल्कि शरीर की क्रियाओं में सहायक रूप होती है। इसके विपरीत जब गलत आहार-विहार के कारण  वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती है,तब शरीर हो हानि होती है और बीमारियाँ होती जाती है।

यदि शरीर में वात आदि दोषों की प्रधानता होती है तो उसका जठराग्नि पर प्रभाव पड़ता है। यदि वायु विषमगति हो जाए तो, पाचन क्रिया कभी नियमित और कभी अनियमित हो जाती है। पित्त अपने तीक्षण गुणों के कारण अग्नि को तीव्र कर खाये हुऐ आहार को समय से पहले ही पचा देती है। कफ अपने मृदु गुण के कारण अग्नि को मृदु बनाकर उचित मात्रा में खाये हुऐ आहार का सम्यक पाचन नियमित समय में नहीं कर पता है। यदि वात, पित्त और कफ तीनों समान मात्रा में रहें तो उचित मात्रा में खाये हुऐ आहार का निश्चित समय से पाचन हो जाता है। 

वात की वृद्धि से मलाशय पर प्रभाव पड़ता है। मलद्वार में क्रूरता बढ़ती है। इससे मलत्याग देरी से होता है। पित्त की वृद्धि से मलाशय मृदु होता है। कफ की वृद्धि से यही मलाशय मध्ये होता है। यदि वात, पित्त, कफ समान है,तो मलाशय एवं मलद्वार मध्य होता है। 

 यदि कोई व्यक्ति वात प्रकृति का है या उसके पेट में वायु का प्रभाव बढ़ गया है तो उसका कोष्ठ क्रूर होगा। अर्थात उस व्यक्ति को मलत्याग में देरी से होगा। इसी को कोष्ठवृद्धता भी कहते है। इसको ठीक करने के लिए औषधि की ज़रूरत होती है। ऐसी औषधि जो वात को काम करे और पित्त को बढ़ाये। जैसे ही पित्त बढ़ता है,वैसे ही कोष्ठ मृदु हो जाता है। कोष्ठ मृदु हो जाये तो मलत्याग आसान हो जाता है। मलत्याग आसान करने के लिए दूध,त्रिफलाचूर्ण बहुत अच्छी औषधियाँ है। मलत्याग करना सबसे अधिक आसान तब होता है, जब  वात, पित्त, कफ समान हो या सम हो।

स्रोत:
स्वदेशी चिकित्सा - दिनचर्या-ऋतुचर्या के आधार पर (भाग - १)
संकलन एवं संपादन: राजीव दिक्षित

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